
सामान्यतः भूकम्पीय तरंगों को दो वर्गों में विभाजित किया जाता है-
1- भूगर्भीय तरंगे – ‘P’ तरंगें तथा ‘S’ तरंगे
2- धरातलीय तरंगे – ‘L’ तरंगे
P तरंगें
- भूकम्प के समय सबसे पहले P तरंगों की उत्पत्ति होती है जो अपने उद्गम स्थल से चारों तरफ गमन करती हैं। पृथ्वी की सतह पर सबसे पहले ‘P’ तरंगों का ही अनुभव होता है। इन्हें ‘प्राथमिक तरंगे’ भी कहते हैं।
- ये ध्वनि तरंगों के समान ‘अनुदैध्र्य तरंगे’ होती हैं। अतः ये तरंगें ठोस, तरल एवं गैस तीनों माध्यमों में गमन कर सकती हैं लेकिन इनका वेग ठोस, तरल एवं गैस में क्रमशः कम होता जाता है।
- इनकी गति सबसे तेज तथा तीव्रता सबसे कम (S एवं L से) होती है।
- प्राथमिक तरंगें (पी तरंगें)
- इसे अनुदैर्घ्य या संपीडन तरंगें भी कहते हैं।
- माध्यम के कण तरंग प्रसार की दिशा में कंपन करते हैं।
- p-तरंगें तेजी से चलती हैं और सतह पर सबसे पहले पहुंचती हैं।
- ये तरंगें उच्च आवृत्ति की होती हैं।
- वे सभी माध्यमों में यात्रा कर सकते हैं।
- P तरंगों का वेग ठोस > द्रव > गैस में होता है
- उनका वेग y कतरनी शक्ति या सामग्री की लोच पर निर्भर करता है।
- ‘P’ तरंगों के लिए छाया क्षेत्र वह क्षेत्र है जो 103° और 142° के बीच के कोण के अनुरूप होता है।
- यह ठोस आंतरिक कोर के बारे में सुराग देता है।
S तरंगें
- P तरंगों के पश्चात S तरंगें पृथ्वी की सतह पर पहुंचती हैं। यही कारण है कि इन्हें ‘द्वितीयक तरंगें’ अथवा ‘गौण तरंगें’ भी कहते हैं।
- ये प्रकाश तरंगों के समान ‘अनुप्रस्थ तरंगें’ होती हैं।
- इनकी गति P से कम एवं L से अधिक होती है।
- इनकी तीव्रता P से अधिक एवं L से कम होती है।
- ये केवल ‘ठोस माध्यम’ में गमन करती हैं।
- अनुप्रस्थ या विरूपण तरंगें भी कहलाती हैं।
- पानी की लहरों या प्रकाश तरंगों के अनुरूप।
- S-तरंगें कुछ समय के अंतराल के साथ धरातल पर पहुंचती हैं।
- एक द्वितीयक तरंग तरल या गैसों से होकर नहीं गुजर सकती है।
- ये तरंगें उच्च आवृत्ति की तरंगें होती हैं।
- पृथ्वी की पपड़ी, मेंटल के ठोस भाग के माध्यम से अलग-अलग वेगों (अपरूपण शक्ति के आनुपातिक) पर यात्रा करें।
- ‘S’ तरंगों का छाया क्षेत्र भूकंप के फोकस से दुनिया भर में लगभग आधे रास्ते तक फैला हुआ है।
- ‘S’ तरंगों के लिए छाया क्षेत्र वह क्षेत्र है जो 103° और 103° के बीच के कोण के अनुरूप होता है।
- इस अवलोकन से तरल बाहरी कोर की खोज हुई। चूँकि S तरंगें तरल के माध्यम से यात्रा नहीं कर सकती हैं, वे तरल बाहरी कोर से नहीं गुजरती हैं।
L तरंगें
- इन्हें ‘लव वेव’ भी कहते हैं। इनका नामकरण वैज्ञानिक ‘एडवर्ड हफ लव’ के नाम पर किया गया है।
- इनकी गति सबसे (P एवं S से) कम होती है, अतः L तरंगें पृथ्वी की सतह पर P तथा S के पश्चात प्रकट होती हैं।
- इनकी तीव्रता P एवं S से अधिक होती है तथा ये सर्वाधिक विनाशकारी होती हैं।
- दीर्घकालीन तरंगें भी कहलाती हैं।
- वे कम आवृत्ति, लंबी तरंग दैर्ध्य और अनुप्रस्थ कंपन हैं।
- आम तौर पर, वे केवल पृथ्वी की सतह को प्रभावित करते हैं और कम गहराई पर मर जाते हैं।
- उपरिकेंद्र के तत्काल पड़ोस में विकसित करें।
- वे चट्टानों के विस्थापन का कारण बनते हैं, और इसलिए, संरचनाओं का पतन होता है।
- भूकंप की अधिकांश विनाशकारी शक्ति के लिए ये तरंगें जिम्मेदार हैं।
- सिस्मोग्राफ पर सबसे अंत में रिकॉर्ड किया गया।
अनुदैध्र्य तरंगे–इसमें कणों का कंपन/दोलन तरंग की दिशा के समानांतर होता है, जैसे-ध्वनि तरंगें।
अनुप्रस्थ तरंगे-इसमें कणों का कंपन या दोलन तरंग की दिशा के लम्बवत होता है, जैसे-प्रकाश तरंगें।
भूकम्पीय तरंगों का संचरण
- भूकम्पशास्त्र के अध्ययनानुसार, भूकम्प की उत्पत्ति P, S एवं L तरंग के रूप में होती है। भूकम्पीय तरंगों के संचरण में सबसे पहले P फिर S एवं अंत में L तरंगों का गमन होता है।
- भूकम्पीय तरंगों की गति का पदार्थ के घनत्व से सीधा संबंध होता है। अतः पृथ्वी की आन्तरिक परतों का घनत्व सतह की अपेक्षा अधिक होने के कारण भूकम्पीय तरंगों की गति में वृद्धि होती है।
- पृथ्वी की आंतरिक परतों में गुटेनबर्ग असांतत्य (2900 किमी. की गहराई) तक P एवं S तरंगों की गति में वृद्धि होती है, इसके बाद S तरंगें विलुप्त हो जाती हैं तथा P तरंगों की गति में अचानक कमी आती है, क्योंकि ‘बाह्य कोर’ का पदार्थ तरल अवस्था में हैं और तरंगें केवल ठोस माध्यम में गमन करती हैं।
- बाह्य कोर में P तरंगों का ‘परावर्तन’ एवं ‘आवर्तन’ होता है, लेकिन आंतरिक कोर में पहुंचते ही P तरंगों की गति में पुनः वृद्धि होने लगती है, क्योंकि अत्यधिक दाब के कारण आंतरिक कोर का पदार्थ ठोस अवस्था में हैं। वहीं, L तरंगें केवल सतह पर ही गति करती है, इसलिये यह सबसे अधिक विनाशकारी होती हैं।
भूकम्पीय तरंगों का छाया क्षेत्र
- पृथ्वी पर एक ऐसा क्षेत्र जहां पर भूकम्पलेखी द्वारा भूकम्पीय तरंगों का अभिलेखन नहीं हो पाता, उसे भूकम्पीय तरंगों का ‘छाया क्षेत्र’ कहते हैं अर्थात इस क्षेत्र में भूकम्पीय तरंगों का संचरण नहीं होता है।
- भूकम्प के अधिकेन्द्र से 1050 के भीतर सभी स्थानों पर P एवं S दोनों तरंगें गति करती हैं, जबकि 1050 से 1450 के बीच दोनों तरंगों का अभाव होता है इसलिए यह क्षेत्र दोनों तरंगों (P एवं S) के लिए ‘छाया क्षेत्र’ होता है।
- 1450 के बाद P तरंगें पुनः प्रकट हो जाती हैं, जबकि S तरंगें यहां भी लुप्त ही रहती हैं। इस प्रकार 1050 से 1450 के बीच पृथ्वी के चारों तरफ P तरंगों के छाया क्षेत्र की एक पट्टी पाई जाती है, जिसे ‘भूकम्पीय तरंगों का छायाक्षेत्र’ कहते हैं।
- भूकम्पीय छाया क्षेत्र बनने का प्रमुख कारण ‘P’ तथा ‘S’ तरंगों की प्रवृत्ति है क्योंकि यह सिद्ध हो चुका है कि पृथ्वी का आंतरिक भाग तरल तथा ठोस अवस्था में है। अतः P तरंगों की गति तरल भागों में धीमी हो जाती है, वहीं S तरंगें तरल भाग में लुप्त हो जाती हैं।
- S तरंगों का छाया क्षेत्र, P तरंगों के छाया क्षेत्र से अधिक होता है।
Topics | Link |
How to make NCERT Notes | Click Here |
NCERT Notes : History | Click Here |
Topics | Links |
All Tricky Posts | Click Here |
All Exams Preparation | Click Here |
All India Radio | Click Here |
All UPSC Books In English | Click Here |
Books Library | Click Here |
Neet Books | Click Here |